घर तो बस घर होता है
दिन भर कितना भी उड़े उन्मुक्त पंछी
ढलती शाम के साथ नीड़ की तलाश होती है
और बांहे पसारे इंतज़ार लिए आँखों में
नीड़ को भी उसके मुस्कराहट भरे चेहरे की आस होती है
सच ही तो है प्रकृति भी डोल उठती है
जब निःशब्दता लिए प्रीतिध्वनियां बोल उठती है
तभी झांकता है वो चाँद लुक छिप कर बदलो से
प्रकृति राज़ जाने कितने यूँ खोल उठती है
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