ढूंढते है हम तुम्हे उस कोयल की कूक में
अमराई से झांकती उस सुबह की धूप मेंपुरवाई में इठलाते उस गुलमोहर के रूप में
मुढ़ेर पे मेरे रोज़ जो आती है बेहिचक
ढूंढते है हम तुम्हे उस कोयल की कूक में
गौरिया जो गुनगुना रही फुदक कर कुछ गए रही
मैना भी देखो उसके सुर में सुर मिला रही
मीठी बोली में अभाषित सा अहसास कोई
दूर से जैसे कहीं तुम्हारी आवाज़ आ रही
आँखों की पोर पे मोती यह ढहरा सा क्या है
उस मद्धम अहसाह में देखो ये पहरा सा क्या
गर्मी की शाम और तपिश की इस मंज़र में
छा रहा है मन पर वो कोहरा सा क्या है
अमराई से झांकती उस सुबह की धूप में
पुरवाई में इठलाते उस गुलमोहर के रूप में
मुढ़ेर पे मेरे रोज़ जो आती है बेहिचक
ढूंढते है हम तुम्हे उस कोयल की कूक में.......