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Tuesday 14 April 2015


लघुकथा 


गुलमोहर 


घर का सबसे खूबसूरत कोना उसे लगता ता वो पीछे की तरफ खुलता एक झरोखा जहाँ से सीधी जाती थी एक सड़क दूर शहर की ओर .दिन में कई बार घर के कामो से वक़्त चुराकर वह खड़ी हो जाती थी उस झरोखे  पे आकर और बुनने लगती थी ख्वाब खुद को उस राह से जाते  हुए देखते.खिड़की से झाकता गुलमोहर जैसे बोलता था किसका रास्ता देखती हो आगे तुम्हे जाना है चलना तुम्हे ही पड़ेगा .वह बहाने करती ,ये परेशानी  है ,ये रुकावटें हैं ये बंधन है,तब ठहाके लगा कर हस पड़ता वह गुलमोहर और कहता मुझे देखा है, हर मौसम देखा है मैंने कभी इठलाता बसंत ,तो तपता जेठ ,झूमता सावन तो कभी ठिठुरता जाड़ा ,फिर भी मै खड़ा हूँ अपनी बाहें पसारे हर मौसम के स्वागत में अपने मधुमास के इंतज़ार में .जब छा जाते हैं लाल फूल मुझपर और मै समेट लेता हूँ अपनी बाहों में उन्हें बिछड़े एक मित्र की तरह.
        उसी तरह जीवन के हर मौसम में खुद को सम्हाल कर देखो सपने और छोड़ दो उन्हें तितलियों की तरह खुले आकाश में और तुम्हे तो सिर्फ भागना हैं पूरे जोश से उनके पीछे रास्ता तो वह तितलियाँ खुद तुम्हे बताएंगी  और कोई भी बंधन सिर्फ तुम्हारे मन का भ्रम है जिसके जाल में बांध रखा है तुमने अपनी सपनो सी  तितलियों को. आज छोड़ दो उन्हें पीछा करो उनका आशाओ का पंख लगाकर और उड़ चलो उसके पीछे इस झरोखे के रस्ते आसमान में .
              उसने पा लिया था आज एक सच और लपक कर गुलमोहर की डालियो को चूमा उसने जैसे करना चाहती हो अभिनन्दन उसका ,अन्तःप्रेरणा बनने के लिए ,क्योकि आदत  जो थी उसे चिड़ियों से पेड़ो से कभी बदलो से बातें करने की और बचपन से  इनमे वो अपना उत्तर तलाशती रही है और कभी निरुत्तर नहीं रहे उसके ये प्यारे मित्र . ..
               
वंदना अग्निहोत्री

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