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Thursday 30 April 2015

 ढूंढते है हम तुम्हे उस कोयल की कूक में  

अमराई से झांकती उस सुबह की धूप में 
पुरवाई में इठलाते उस गुलमोहर के रूप में
मुढ़ेर पे मेरे रोज़ जो आती है बेहिचक 
ढूंढते है हम तुम्हे उस कोयल की कूक में
गौरिया जो गुनगुना रही फुदक कर  कुछ गए रही 
मैना भी देखो उसके सुर में सुर मिला रही 
मीठी बोली में अभाषित सा अहसास कोई 
दूर से जैसे कहीं तुम्हारी आवाज़ आ रही 
आँखों की पोर पे मोती यह ढहरा सा  क्या है 
उस  मद्धम अहसाह में देखो ये पहरा सा क्या 
गर्मी की शाम और  तपिश की इस मंज़र में 
छा रहा है मन पर वो कोहरा सा क्या है
अमराई से झांकती उस सुबह की धूप में 
पुरवाई में इठलाते उस गुलमोहर के रूप में
मुढ़ेर पे मेरे रोज़ जो आती है बेहिचक 
ढूंढते है हम तुम्हे उस कोयल की कूक में.......





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