सुप्रभात मित्रो ,
जब कोई प्राकृतिक आपदा आती है ,"प्रकृति का रोष " हम ये कह कर पुकारते हैं.जो दिन रात दे रही है ,उड़ेल रही है प्रेम बिना किसी आशा के ,क्या वो रोष कर सकती है हम पर..जब पहली बार मानवता ने इस धरती की गोद में आँखें खोली होगी,उस किलकारी के साथ जब से उसने हमे सीने से लगाया तब से आज तक हमारा भार उठए घूमती है निरंतर.फिर ये दोष भी प्रकृति पर क्यों लगाते हैं हम .कब लेंगे हम अपनी जिम्मेदारी कि इस मोड़ पर हमने ही पहुँचाया धरा को हमारी. कब उठाएंगे हम जिम्मेदार कदम सुधार की तरफ. जो भी असंतुलन हुआ एक दिन में नहीं हुआ ,तो संतुलन भी सदियाँ लेगा पर क्या हमने सच में पहला कदम उठाया है उस मनोवांछित संतुलन की ओर.हमे तो आभारी होना चाहिए इस धरती का कि अपने अंदर के दर्द को बहुत समेट कर चल रही है खुद में,पर जब कभी दिल भर आता है उस माँ का तब उसके सीने में होती उथल पुथल हिला जाती है हमे,और हम आज भी एक दोष अंकित कर संतुष्ट हो जाते है हर बार इस दर्द को आपदा का नाम दे कर.विचार कर देखें हम आज एक साथ यह गहरा सत्य .....
वंदना अग्निहोत्री
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