परछाइयाँ
बादलो की ओट से झाकता सा सूरज ,छिप जाता है जब बदलो के आगोश में तब सिमट जाती है परछाई मुझमे मेरी, मुझे अंक में अपने लेती हुई ,कह रही हो जैसे अंधेरो में हम और करीब है .धूप में आस पास हूँ तो छाँव में तेरे दिल के पास हूँ ,.फूट पड़ता है प्रेम तब बारिश बन आकाश के ह्रदय से और सिमट जाती है वो अपनी बाँहों में खुद को समेट कर .शेष रह जाता बस एक मौन ,एक सवाल बन कर ........तुझमे मेरा मुझमे ये तेरा सा क्या है
बंद पलकों पर एक बसेरा सा क्या है
वंदना अग्निहोत्री
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