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Wednesday 15 July 2015



तुम और मैं...


तुम और मैं दूर तक फैला अथाह और ये चंचल लहरे 
हाँ देखा था सपना एक  कुछ आज   इस तरह 
शायद मिल जाये कभी तेरे सपनो में, मेरे सपने कुछ भटकते हुए
पूछ लेना चाहते क्या कहती है ,कुछ होंठो पे रुकी हुई बाते क्यों रहती है 
तुम और मैं दूर तक फैला अथाह और ये चंचल लहरे 
साँझ का ढलता आँचल ,मचलती लहरो का कल -कल
मद्धम होती  रोशनी में ,पल पल बढ़ती  वो धड़कन  
तुम और मैं दूर तक फैला अथाह और ये चंचल लहरे 
क्षितिज के दोनों छोर पे ,मिलते है कभी धरती और गगन 
मुस्कुराता हुआ लाज से छुप चला, लो वो लाल होता सूरज
तुम और मैं दूर तक फैला अथाह और ये चंचल लहरे 
खिल उठी पूरनमासी ,वो मुस्कुराता चाँद  झिलमिलाते तारो के संग
निहारती वो चार पलके ,दूर  तलक केसरिया होता वो चांदनी का रंग
तुम और मैं दूर तक फैला अथाह और ये चंचल लहरे 
हाँ देखा था सपना एक  कुछ आज  इस तरह 
शायद मिल जाये कभी तेरे सपनो में मेरे सपने कुछ भटकते हुए
पूछ लेना चाहते क्या कहती है ,कुछ होंठो पे रुकी हुई बाते क्यों रहती है ..........

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