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Monday 6 July 2015

घोसला बया का :सार्थकता उलझनों की

आज अपनी एक पुरानी रचना को देखा ,तब विचार आया हर सृजन को उलझनों से गुजरकर आकार लेना होता है और यही उलझनों का ताना- बाना किसी भी सृजन की सुंदरता को सार्थकता देता है.आज अपनी वही पुरानी रचना आपके साथ बाटती हूँ .....

जीवन नाम है कुछ उलझे कुछ सुलझे धागो का
खेल है बस कुछ टूटते कुछ निभते  वादो का
बढ़ते हुए कभी हौसलों कभी गिरते इरादो का
समय के मोड़ से झांकती कुछ खट्टी मीठी यादों का 
पर क्या सच ही इतनी उलझन है,पर लगता
बस दृष्टिकोण का अंतर है बाकि सब भ्रम है
जब जब उलझता है धागो का ताना बाना  तब
कच्चे पक्के रंगो में आकर लेती है कोई  रचना
तब समझ आती  है सार्थकता  उलझनों की
जब खूबसूरत सा सामने आता है "बया" का आशियाना
कितना जटिल कितना उलझा कितना गुंथा हुआ आकार
फिर भी  एक ज़िन्दगी को देता है  वो आधार
और एक ज़िन्दगी करती है उसकी हर उलझन के साथ उसे स्वीकार
सोच बदलने से शायद सच भी बदल जाता है जीवन का ......

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